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भगवान विष्णु के साथ ब्रह्माजी व् इन्द्रादि देवताओं ने कैलाश पहुंचकर भगवान की स्तुति की । भगवान विष्णु व् ब्रह्माजी के अनुरोध पर भगवान शिव सभी देवताओं के साथ दक्षप्रजापति की निवासस्थली कनखल में पधारे, उस समय कनखल में सभी ओर भय, आतंक क कारण सन्नाटा छाया हुआ था । यह घटना सृस्टि के आदिकाल की है । कैलाश गमन का वर्णन करते समय महर्षि वेदव्यास ने अलकापुरी, सौगन्धिक वन तथा नन्दा, अलकनन्दा, नामक नदियों का उल्लेख किया है किन्तु गंगा या भागीरथी का उल्लेख नही किया । तथा
ददृशुस्तत्र ते रम्यामलंका नाम वै पुरीम् ।
वनं सौगन्धिक चापि तत्र तन्नाम पण्डकजम् ॥ (भागवत चतुर्थ स्कन्ध)
नंदा चालकनन्दा च सरितै वहतः पुरा । (अध्याय ६-२३,२४)

तथापि नन्दा, मन्दाकिनी,अलकनन्दा का प्रवाह्पथ मायापुरी व दक्षपुरी में विध्यमान था तथा भगवान शिव अलकनन्दा, नन्दा के पश्चिम तट पर कनखल के मध्य भाग में एक टीले पर सूक्ष्मरूप में अवतरित होकर शनैः - शनैः सामान्य शरीर को प्राप्त हुए, उस समय वहां पर चारों ओर दूर - दूर तक यज्ञ के पात्र, भोजन के भाण्ड, तिल, यव,घृत, मिष्ठान, मेवा आदि बिखरे पड़े थे । तिल, जौ आदि के समूह में सूक्ष्म रूप से अवतरित भगवान शिव का प्रथम दर्शन तिल समान अवभासित होकर शनैः - शनैः वर्धमान होने के कारण वे ' तिलवर्धनेस्वर ' नाम से प्रसिद्ध हुए तथा वही पर सभी देवगन, यज्ञ - पुरोहित आदि उद्गाता ऋषिगण ने भगवान शिव की स्तुति कर उनसे दक्ष प्रजापति को जीवनदान, भृगु आदि ऋषियों को क्षमादान कर दक्ष यज्ञ का पारायण कराने हेतु प्रार्थना की । इसी स्थान पर भगवान शंकर को प्राप्त करने के लिए सती द्वारा पूजा भी की गयी थी ।

तत्पश्चात भगवान शिव, ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्रादि देवताओं ने दक्ष प्रजापति के शरीर पर बकरे का सिर जोड़कर 'अजशीर्ष' नाम देकर भृगु आदि ऋषियों के शरीर के क्षति को पूर्णता प्रदान यज्ञ संपन्न कराया । उसी स्थान पर दक्ष प्रजापति मंदिर आज भी विधमान है तथा मध्य भाग पर गंगा तट के समीप तिलभाण्डेश्वर महादेव का विशाल लिंग्डविग्रह से सुशोभित वर्तमान मंदिर जन सामान्य की आस्था का पतीक बन गया है ।
तिलभाण्डेश्वर भगवान शिव के लिंग्डविग्रह के विषय में जनसामान्य में अनेक चर्चायें प्रचलित हैं । सर्वमान्य बात यह है कि यह शिव लिंग्ड प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष में एक तिल बढ़ता है तथा कृष्ण पक्ष में एक तिल घट जाता है, अनेक भक्त इस विषय में स्वानुभूत प्रमाण भी देते हैं कि मैंने शुक्ल प्रतिपदा को भगवान तिलभाण्डेश्वर का अभिषेक कर यज्ञोपवीत अर्पित किया । उस समय यज्ञोपवीत लिंग्ड पूरी तरह सामान्य रूप से कसकर व्याप्त था किन्तु पूर्णिमा को प्रातः काल दर्शन करने पर पाया कि यज्ञोपवीत स्वतः टूट गया था, अर्थात शिव लिंग्ड की वृद्धि के कारण ही यज्ञोपवीत क्षय हो गया ।

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शिव - स्तुति :
वन्दे देवमुमापंति सुरगुरं वन्दे जगत्कारणं वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं वन्दे पशूनां पतिम् । वन्दे सूर्यशशाङ्क वह्रिनयनं वन्दे मुकुन्दप्रियं । वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं वन्दे शिवं शङकरम् ॥ श्री तिल भाण्डे श्र्वराय नमः

द्धादश ज्योतिर्लिगङा:
सौराष्टे सोमनाथं च, श्री शैले मल्लिकार्जुनम । उज्जयन्यां महाकालं, ओमकारं ममलेश्र्वरम् । प्रहल्यां वैद्यनाथं च , डाकिन्यां भीमशंकरम् । सेतुवन्दे तु रामेशम, नागेशं दारुकावने । वाराणस्यां तु विश्र्वेसं, त्रयम्बकं गौतमी तटे । हिमालये तु केदारम्, घुसमेसं शिवालये । एतानि ज्योतिर्लिगङा, सायं प्रातः पठेन्नरः सप्त जन्म कृतं पापम, स्मरणेन विनश्यति ॥

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